‘‘सीता राम चरित अतिपावन।
मधुर, सरस और अति मनभावन।।’’
वैसे तो मैंने बचपन में ही लगभग 10-11 वर्ष की उम्र में ‘‘श्री रामचरित’’ गोस्वामी तुलसी दास जी द्वारा रचित एवं ‘‘श्रीमद् भगवद गीता’’ का पठन किया था। उद्देश्य – भाषा का शुद्ध उच्चारण, शुद्ध पठन व शुद्ध लेखन बहुत ही महत्वपूर्ण है। मेरे पिता भी यही चाहते थे कि मैं हिन्दी व संस्कृत दोनों भाषाओं का ही शुद्ध पठन, शुद्ध लेखन, शुद्ध उच्चारण सीखूँ। मैंने भी बड़े लगन से यहसब कुछ सीखा। घटनाएँ समझ में आई हों या न आई हों पर स्मरण तो रहीं, ज्ञान की वृद्धि हुई। अपने अतीत की संस्कृति पर गर्व हुआ और जैसे उनसे एक नाता बन गया।
आज से लगभग 33 वर्ष पूर्व जुलाई 1987 जब सम्माननीय रामानन्द सागर जी द्वारा निर्मित ‘रामायण’ सीरियल रुप में दूरदर्शन पर प्रस्तुत की गई। यह इतनी सजीव व मोहक थी एवं इसका प्रत्येक चरित भी सजीव, स्वाभाविक रुप में चित्रित किया गया। परिवार के सभी जन काम छोड़कर समय से पहले ही टेलीविजन के समक्ष बैठ जाते थे, सड़कें सुनसान हो जाती थीं।
सरकारी व गैर सरकारी बसों को सड़क के किनारे खड़ी कर ड्राइवर ‘रामायण’ सीरियल देखने के पश्चात् ही अपने गन्तव्य परजाते थे। यह जादुई प्रभाव था श्री रामानन्द सागर जी की ‘रामायण’ का। अब हमारे प्रधानमंत्री जी ने भारतीय धार्मिक संस्कृति के प्रेम वश पुनः इसका प्रसारण दूरदर्शन पर किया। कोरोना जैसे विश्वव्यापी संक्रमण के कारण घर में बैठे व्यक्तियों का समय-सदुपयोग, सीखने, देखने, अपनी संस्कृति, मर्यादा को पुनः स्मरण कराने हेतु टेलीविजन पर त्रेता युग में अवतरित श्रीरामजी के चरित्र को दिखाने हेतु ‘रामायण’ का प्रसारण किया। उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद।
मुझे अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व है, रुचि है, जिज्ञासा है इसलिए इस बार मैंने टेलीविजन पर प्रसारित ‘रामायण’ और ध्यान से देखी है। इसके कुछ संदर्भ जो मुझे बहुत अधिक भाए, अच्छे लगे, मेरे मानस पटल पर छप गये, वे कुछ आपके समक्ष प्रस्तुत हैं।
पहला – आज के इस आधुनिक युग में तो हर विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उस समय में भी हमारे ऋषि-मुनियों के यज्ञ, हवन, पूजा के क्षेत्र-विशेष होते थे-उदाहरणार्थ- जब गुरु वशिष्ठ जी ने कौशल नरेश दशरथ जी से कहा, ‘‘पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्र्येष्टि यज्ञ कराना होगा।’’ तब कौशल नरेश दशरथ जीने पुत्र्येष्टि यज्ञ कराने के लिए कुलगुरु वशिष्ठ जी से प्रार्थना की। वशिष्ठ जी कहते है, ‘‘राजन यह पुत्र्येष्टि यज्ञ मैं नहीं कर सकता, इस यज्ञ को केवल ऋष्यशृंग मुनि ही करेंगे।’’
दूसरा – बच्चो के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा का स्वरूप बहुत महत्व रखता है। उनकी शिक्षा के अभिन्न अंग थे, योग- ‘‘मन की सारी वृत्तियों को एक स्थान पर केन्द्रित करना ही योग है,’’स्व-अनुशासन, श्रम, पुष्ट शरीर, विनम्र वाणी, पवित्र आत्मा, पवित्र मन। इनका उद्देश्य है शरीर में ऊर्जा केन्द्र सातों चक्रों का विकास कर ऊर्जावान बनाना। वर्तमान में बाबा रामदेव जी के प्रयासों के फलस्वरुप योग जन-साधारण तक पहुँचा है। इसे स्कूलों के पाठ्यक्रम का अनिवार्य अंग बनाने के लिए सारी शिक्षा संस्थाएँ, शिक्षा विशेषज्ञ, डायरेक्टोरेट, सी. बी. एस. ई., प्रयत्नशील है। अब विद्यालयों में प्राणायाम, योगासन आदि अनिवार्य हो गये हैं।साथ ही हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी के प्रयासों के फलस्वरुप 21 जून अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘योगदिवस’’ बन गया है। यह गौरव की बात है इसी संदर्भ में- आश्रम की शिक्षा में ‘श्रम’ का विशेष महत्व होता था। कहते हैं ‘‘बचपन में की गई मेहनत वो तपस्या है, जिसका फल जीवन पर्यन्त मिलता है।’’इसी से शरीर पुष्ट बनता है। आश्रम में बचपन से ही आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ा दिया जाताथा। श्रीराम व उनके भाइयों को गुरु जी परिश्रम का प्रशिक्षण देते हैं और अपनी पत्नी अरुन्धती से कहते हैं ‘‘बच्चो को कर्मठ बनाओ।’’
गुरु माँ कितना सुन्दर उत्तर देती हैं‘‘उचित है गुरुदेव बच्चों को कर्मठ बनाओ लेकिन उनमें भावनाओं की कोमलता भी रहने दो।यदि कर्मठता के साथ-साथ बच्चों, युवाओं में भावनाओं की कोमलता भी रहेगी, तो सम्भवतः अपराधों की संख्या कम हो जाएगी।
तीसरा – एक शिक्षक अपने शिष्यों को अपना ‘सर्वश्रेष्ठ’ देता है लेकिन शिष्य को परखने के बाद।शिष्य की एकाग्रता, जिज्ञासा, लगन, सीखने की प्रवृति, परिश्रम एवं अनुशासन।
उत्तर रामायण महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित में सीता-राम व पुत्र लव, कुश का एक ऐसा अतिउत्तम प्रसंग आता है। उनके गुरु महर्षि वाल्मीकि जी बच्चो का सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेते हैं और अपना सम्पूर्ण ज्ञान, शक्तियाँ, उपलब्धियाँ, अस्त्र-शस्त्र, उन्हें हस्तांतरित कर देते हैं। उन्हें प्रयोगकरने की विधि, उनके मूल-मंत्र दे देते हैं जैसे यदि क्षत्रिय किसी को दुख में देखकर उसकी रक्षा करने के बजाय भाग जाता है, तो वह कायर होता है। दूसरा किसी भी शक्ति का प्रयोग तभी करो जब वह अत्यन्त आवश्यक हो और दूसरा कोई विकल्प न बचे। क्योंकि किसी भी शक्ति का अनुचित प्रयोग करने से उनका प्रभाव कम हो जाता है यहाँ तक कि कभी-कभी वे प्रयोगकर्ता के विपक्ष में हो जाती हैं।
शक्तियाँ, सिद्धियाँ, अस्त्र-शस्त्र देने के बाद गुरु जी उनसे कहते हैं- लव, कुश, मैंने अपना सम्पूर्ण ज्ञान तुम्हें दे दिया है, उन्हें तभी प्रयोग करें जब यह अत्यन्त आवश्यक हो।
मैंने तुम्हें ‘‘रक्षा कवच’’ दिया है कोई तुम्हें हानि नहीं पहुँचा सकता। तुम्हें अभिमंत्रित आशीर्वाद दिए हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। इसी का प्रमाण है “अश्वमेध’’ यज्ञ का घोड़ा पकड़ने के बाद जब श्रीराम जी की सेना लव, कुश द्वारा पराजित हो जाती है और शत्रुघ्न, लक्ष्मण, भरत भी घायल हो जाते हैं।
इतना आत्मविश्वास गुरु द्वारा शिष्यों में भर दिया गया। अन्त में जब श्रीराम आते हैं और जाने-अनजाने में श्रीराम व लव, कुश दोनों अपने धनुषों की प्रत्यंचा चढ़ाकर युद्ध के लिये तैयार हो जाते हैं तभी गुरु जी आ जाते हैं। श्रीराम रथ से उतर कर गुरु जी के चरणों में नतमस्तक हो प्रणाम करते हैं, गुरु जी आशीर्वाद देते हैं और फिर पूछते हैं- यह क्या हो रहा है महाराज ? श्रीराम कहते हैं ‘‘ये बालक बहुत हठी है मुनिवर।’’ गुरु जी कितना अच्छा तर्क देते हैं।‘‘बालहठ तो सब जानते हैं महाराज, लेकिन बालहठ का उत्तर राजहठ तो नहीं हो सकता। आप मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। ये बच्चे भी आपके पुत्रो के समान हैं, ये आपकी प्रजा है और प्रजा कीरक्षा करना राजा का परम धर्म है।’’ जीवन की समस्याओं का समाधान करना, अपने शिष्यों का मनोबल बढ़ाना-गुरु (शिक्षक) का यही परम धर्म है। फिर वे लव, कुश से भी कहते हैं ‘‘मैंने तुम्हें जो शिक्षा आज तक दी है, वह सफल हो गई लेकिन अपने राजा के सामने शस्त्र उठाना उसी प्रकार है जैसे पुत्र पिता के सामने शस्त्र उठाए। क्षमा माँगो महाराज से, ये हमारे राजा हैं।
हम इनकी राज्य सीमा में रहते हैं।’’ कहकर अपने शिष्यों को गलती का अनुभव कराते हैं। फलस्वरूप लव और कुश चरण छू कर श्री राम से क्षमा मांगते है।धन्य हैं ऐसे गुरु और ऐसे शिष्य। हमारे गुरु जब बोलते थे, पूरा विश्व उन्हें सुनता था। बड़े से बड़ा राजा भी सिंहासन से उतरकर गुरु के चरणों की वन्दना करता था, यह था गुरु का सम्मान। शायद इसीलियें भारत कभी विश्व गुरु था इसमें हमारें धार्मिक आध्यात्मिक ग्रंथो का विशेष योगदान है जो सत्यता पर आधारित है।